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Elon Musk : अब मनुष्य को “Mars” में भेज रहे कब और कैसे जाने पूरी बात ?

Elon Musk

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Elon Musk : का प्लैन है कि Mars पर इंसानों को भेजने से पहले चांद पर एक बेस बनाई जाएगी ताकि Mars तक पहुँचने का प्रोसेस छोटा हो जाए। SpaceX के फाउंडर इलॉन Elon Musk पर जाने की रेस को अपने नाम करना चाहते हैं। इसके अलावा यूरोपियन और रशियन स्पेस एजेंसीज भी इंसानों को Mars पर भेजने की बातें करती हैं। लेकिन Mars के हार्श एटमॉस्फियर में लैंड करने के बाद वहां इंसान जिंदा कैसे रहेंगे? क्योंकि जमीन के बरअक्स मार्स में ज़िंदगी की सबसे बड़ी ज़रूरत ऑक्सीजन मौजूद ही नहीं है। Nasa ने मार्स पर ऑक्सिजन बनाने का क्या तरीका निकाला है और इंटरनेशनल Space स्टेशन जिस तरीके से ऑक्सीजन बनाता है, वह तरीका मार्स पर काम क्यों नहीं कर पाएगा? जैन टीवी के विडियोज में एक बार फिर से खुशामदी नाजरीन इन्सानों की मार्स पर रहने की ख्वाहिश के पीछे ढेर सारी वजूहात हैं, जिनमें साइंटिफिक एक्सप्लोरेशन और स्पेस क्यूरोसिटी का फैक्टर तो है ही, लेकिन इन ख्वाहिशे हाथ के बीच एक मजबूरी या ख़ौफ़ भी है। वह यह कि अर्थ पर किसी आफत की वजह से कहीं इंसानों की नस्ल खतम ही न हो जाए। जैसा कि साढ़े 6 करोड़ साल पहले हमारी दुनिया से डायनासौर का खात्मा हुआ था। और ऐसा पॉसिबल भी है जिसकी एक एग्जाम्पल हम अर्थ पर। क्लाइमेट चेंज की सूरत में देख रहे हैं। यही शायद सबसे बड़ी वजह है कि आने वाले वक्त में कोई न कोई मार्स का नील आर्मस्ट्रांग बनेगा। एक तरफ इलॉन मस्क ने पहले 2026 में मार्स को कॉलोनाईजर करने का इरादा किया था लेकिन अब उनकी जानिब से 2029 की प्रिडिक्शन की गई है।

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Mars:  दूसरी तरफ नासा ने भी 2030 तक इंसानों को मार्स पर लैंड कराने का इरादा किया है। पर सवाल यह नहीं है कि कौन पहले मार्स पर जाएगा। सवाल यह है कि मार्स पर जाने के बाद इंसान जिंदा कैसे रह पाएंगे? बेशक मार्स की कई सारी प्रॉपर्टी अर्थ से मिलती जुलती हैं। जैसा कि मार्स का एक दिन जिसको मार्शन डे या सोल भी कहा जाता है, उसकी लेंथ अर्थ के दिन के मुकाबले में सिर्फ थर्टी नाइन मिनट्स ही ज्यादा है। वहां भी मुख्तलिफ मौसम है और अर्थ पर भी। इसके अलावा अर्थ के पोल्स पर भी आइस कैप्स हैं और मार्स के पोल्स पर भी, अर्थ पर भी एटमॉस्फियर है। जबकि मार्स पर पतला ही सही, लेकिन एटमॉस्फियर ज़रूर है। लेकिन एक चीज जो मार्स पर इंसानों के रहने के लिए बिल्कुल नाकाफी है, वह है ऑक्सीजन। तो आखिर मार्स पर यह ऑक्सीजन गैस कैसे बनाई जाएगी? वह भी एक दो लोगों के लिए नहीं, बल्कि मार्स की एक पूरी कॉलोनी को आबाद रखने के लिए। एक्स्ट्रीम सिचुएशन में इंसानों को जिंदा रखने की बात की जाए तो सबसे पहले खयाल आता है आईएसएस यानी इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन का। इसको आज स्पेस की हार्श कंडीशन में 25 साल गुजर चुके हैं और अभी तक यह लगातार इंसानों को ऑक्सीजन और फ्रेश पानी बनाकर देता रहा है। इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में 4 से 5 एस्ट्रोनॉट्स हर वक्त मौजूद रहते हैं, जिनकी रोजाना पानी की रिक्वायरमेंट कम से कम भी 45 लीटर है। यानी महीने की 1350 और साल की 16,200 लीटर। इसके अलावा आईएसएस पर 1000 केजी ऑक्सीजन गैस सालाना इस्तेमाल होती है। इतना ज्यादा पानी और ऑक्सीजन अर्थ से 400 किलोमीटर दूर स्पेस में कैसे बनाया जाता है?

Elon Musk : इस काम के लिए ISS में दो सिस्टम्स लगे हुए हैं। एक है वॉटर रिक्लेमेशन सिस्टम डब्ल्यूआरएस और दूसरा है ऑक्सीजन जेनरेशन सिस्टम यानी जीएस। यह दोनों सिस्टम हम मार्स पर क्यों नहीं लगा सकते, यह समझने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि यह सिस्टम काम कैसे करते हैं। वॉटर रिक्लेमेशन सिस्टम ह्यूमन वेस्ट यानी यूरीन पसीना और ह्यूमिडिटी से पानी कलेक्ट करता है और फिर उसको साफ करके वापस से पीने के काबिल बना देता है। एस्ट्रोनॉट डगलस वी लॉक ने एक मौके पर कहा था कि हमारी कल की कॉफी से ही अगले दिन की कॉफी बनती है। डब्ल्यूआरएस सिस्टम आईएसएस में पहले से मौजूद पानी को प्यूरीफाई करके दोबारा से इस्तेमाल के काबिल बना देता है और इस तरह नाइंटी परसेंट पानी ज़ाया होने से बच जाता है। इसके बराबर में है ऑक्सीजन जेनरेशन सिस्टम। यह सिस्टम डब्ल्यूआरएस से थोड़ा सा पानी लेता है और फिर उसको एक खास प्रोसेस से गुजारकर सांस लेने के लिए ऑक्सीजन बनाता है। यह सिम्पल प्रोसेस हमने फाइव क्लास में पढ़ा था, जिसको इलेक्ट्रोलिसिस कहते हैं। पानी में से इलेक्ट्रिकल करंट को गुजारा जाता है, जिससे पानी, ऑक्सीजन गैस और हाइड्रोजन गैस में बदल जाता है। ऑक्सीजन गैस को सांस लेने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन हाइड्रोजन तो एक बहुत ही खतरनाक और इन्फ्लेमेशन गैस है जो पूरे आईएसएस को सेकंडों में जलाकर फायरवॉल बना सकती है। इस हाइड्रोजन गैस को ज़ाया नहीं किया जाता बल्कि इसको एक और सिस्टम में डाला जाता है जिसको सब टीयर सिस्टम कहते हैं। यह सिस्टम आईएसएस में मौजूद एस्ट्रोनॉट्स के वेस्ट कार्बन डाईऑक्साइड को जमा करके उसको हाइड्रोजन गैस के साथ मिलाकर उसमें से पानी, मीथेन गैस और थोड़ी सी फ़रमाइश बनाता है। पानी को वापस से इस्तमाल में लाया जाता है। फ़रमाइश को हीट मैनेजमेंट सिस्टम में डाल दिया जाता है, लेकिन मीथेन गैस जिसकी अर्थ पर बहुत अहमियत है, उसको आईएसएस से बाहर स्पेस में निकाल दिया जाता है। मीथेन गैस जो एक तरह का फ्यूल भी है, इससे एनर्जी भी बनाई जा सकती है और हीट भी। लेकिन उसको जाया इस वजह से किया जाता है क्योंकि इसको जलाने के लिए ऑक्सीजन की ज़रूरत है और आईएसएस पर ऑक्सीजन ही तो है जो सबसे ज्यादा कीमती है। आईएसएस के इस पूरे ऑक्सीजन और वाटर के प्रोसेस पर अगर गौर किया जाए तो यह रिफ्यूलिंग मिशन पर डिपेंड करते हैं क्योंकि बेशक यह नाइंटी परसेंट एफिशिएंट तो है लेकिन फिर भी हर सिस्टम में लॉसेज और लीकेज तो होती ही है। इसी वजह से हर छह महीने या साल के बाद पानी और ऑक्सीजन को ज़मीन से लाकर आईएसएस में डाला जाता है। यह रिफ्यूलिंग मिशन बहुत कॉस्टली होते हैं, जिनमें सिर्फ एक लीटर पानी को 400 किलोमीटर ऊपर आईएसएस तक पहुंचाने का खर्चा ढाई हजार डॉलर से भी ज्यादा होता है। लिहाजा साढ़े 22 करोड़ किलोमीटर दूर मार्स पर इसी तरीके से ऑक्सीजन बनाना किसी भी तरह से कॉस्ट इफेक्टिव नहीं है। इसके लिए कोई ऐसा सिस्टम बनाना होगा, जो मार्स पर ही मौजूद रिसोर्सेज को इस्तेमाल करके उसमें से ऑक्सीजन बनाए। टू थाउजंड वन में जो नासा का पर्स रेंज रोवर मार्स पर भेजा गया था, उसमें इसी तजुर्बे के लिए एक डिवाइस लगाई गई थी, जिसको बॉक्सी यानी मार्स ऑक्सीजन इंस्टिच्यूट एक्सपेरिमेंट का नाम दिया गया है। क्योंकि आईएसएस में तो पानी का सोर्स री फ्यूलिंग होता है, लेकिन मार्स पर पानी ढूंढने के लिए उसके पोलर कैप्स तक जाना होगा या फिर कई फुट नीचे ड्रिल करके बरफ निकालनी होगी। इसी वजह से मौक सी मार्स के एटमॉस्फियर से ही कार्बन डाई ऑक्साइड को यूज करके उसमें से ऑक्सीजन बनाता है। कैसे आसान अल्फाज में समझाया जाए तो मार्स के एटमॉस्फियर में फाइव परसेंट कार्बन डाई ऑक्साइड है। मक्सी बाहर के एटमॉस्फियर से कार्बन डाई ऑक्साइड पंप करके उसको प्रेशर आइज करता है और फिर उसको एक इलेक्ट्रोलाइट में डालकर एक हंड्रेड डिग्री सेल्सियस के टेम्परेचर पर हीट किया जाता है, जिससे कार्बन डाई ऑक्साइड में से ऑक्सीजन गैस अलग हो जाती है। यह इलेक्ट्रोलाइट घोल का बना हुआ है क्योंकि गोल्ड एक एक्सीलेंट हीट कंडक्टर है जो वेरिएंट्स के दूसरे पार्ट्स को गर्माहट से बचाता है। इस प्रोसेस में कार्बन डाई ऑक्साइड से ऑक्सीजन गैस के साथ साथ कार्बन मोनो ऑक्साइड भी पैदा होती है। इसका नुकसान यह है कि अगर इस प्रोसेस में कार्बन बिल्कुल अलग हो गया, तो वह कार्बन की एक लेयर भी बना सकता है, जैसा कि कोकिंग पैन के नीचे देखने को मिलती है और यह लेयर परत वेरिएंट्स को नुकसान पहुंचाने में देर नहीं करेगी। इसी वजह से इस प्रोसेस को बड़ी एहतियात के साथ परफॉर्म किया जाता है। लेकिन मार्स पर मॉक सी एक वक्त में कितनी ऑक्सीजन प्रोड्यूस करता है?

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